साइबर पुलिस
आईएऐस, आईपीएस, एवम अन्य अनेक प्रकार के सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, और उनके साथ अनगिनत सांसद, विधायक, पार्षद, आदि - कुल मिलाकर जितना लंबा-चौड़ा सरकारी तामझाम भारत में मौजूद है उतना शायद ही ब्रह्मांड में कहीं और मौजूद हो लेकिन एक चीज़ जो अनिवार्यतः होनी चाहिए, सिरे से नापैद है। वह लापता तत्व है प्रशासन। संसार में जितने भी अग्रणी विकसित राष्ट्र हैं, उन सब में एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था उपस्थित है। विकसित देशों में प्रशासन और विधि व्यवस्था सुदृढ़ होते हुए भी वहाँ आमतौर पर सरकारें छोटी और कम खर्चीली हैं। भारत की स्थिति उलट है। एक दिल्ली शहर का ही उदाहरण लें तो सांसदों के अलावा शहर की अपनी विधान सभा है और उसके अलावा कई पालिकाएँ भी अपने पार्षदों के साथ मौजूद हैं। इसके अलावा आईएऐस, आईपीएस, एवम अन्य सरकारी कर्मियों की फौज मौजूद है। लेकिन जब बात प्रशासनिक व्यवस्था की आती है तो देश का सबसे प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण नगर होने के बावजूद भी वह अपने आसपास के पिछड़े देशों के किसी सामान्य पिछड़े शहर जैसा ही है जहाँ एक बड़ी जनसंख्या पीने के पानी जैसी मूलभूत पर मामूली सुविधा से भी वंचित है। बिजली-पानी की आपूर्ति हो, सड़कों के निर्माण और रखरखाव की बात, कूड़े का निस्तारण हो या नदी-नालों की सफाई, हम आज तक एक नगर, देश की राजधानी को भी रहने लायक नहीं बना सके, बाकी भागों की तो बात ही जाने दीजिये।
विकसित देशों में समस्याओं के अध्ययन और निराकरण में स्थानीय जनता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साथ ही साथ वहाँ जनता शिक्षित भी होती है (उदाहरणार्थ, अमेरिका में 12वीं कक्षा तक शिक्षा निशुल्क और अनिवार्य है) और अपना हित, राष्ट्रीय हित और मानवता का हित समझने और सुरक्षित रखने की समझ भी रखती है। दिल्ली के लिए अनेक विशेषज्ञों, कमेटियों, विभागों, कर्मियों, और सुझावों के होते हुए भी पेयजल, शिक्षा और सुरक्षा जैसी मूलभूत समस्याओं तक का निराकरण न कर पाना कहीं न कहीं इस बात का सबूत है कि हमारे देश में जिन कंधों पर ज़िम्मेदारी छोड़ी गई है वे अपने काम के लिए फिट नहीं हैं। तो क्यों न सक्षम लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर लाने का प्रयास किया जाये?
जम्मू और काश्मीर में मुजाहिदीन द्वारा किए जा रहे अमानवीय कृत्य हों या छत्तीसगढ़ में माओवादियों के कंगारू कोर्ट के नाम पर जघन्य हत्यायेँ और घात लगाकर सड़कें और स्कूल नष्ट करना, हर जगह हम जन-जीवन की असुरक्षा और प्रशासन की अकुशलता ही देखते हैं। अंतर बस इतना ही है कि उत्तर प्रदेश में यह अपराध उतने संगठित और विस्तारित नहीं हैं जितने आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में।
इसी प्रकार देश में कहीं भी, कभी भी द्वेष से भरे असंतुष्ट समुदाय एक दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं। मुजफ्फरनगर हो या पुणे, हालिया दंगों ने फिर यही सिद्ध किया है कि देश के अधिकांश भाग में सरकारें भले ही बड़ी हों, लेकिन प्रशासन लापता है। खासकर पुणे के दंगों में जिस प्रकार इन्टरनेट पर, फेसबुक,वाट्सऐप, यूट्यूब और ब्लॉग्स आदि पर खुलेआम फैलाई गई नफ़रत की बात सामने आई है, उससे यही लगता है कि सोशल मीडिया के खतरों के बारे में हमारा प्रशासन कान में तेल डाले बैठा है। कहीं विचारधारा के नाम पर आतंकवादियों और उनके सफेदपोश संरक्षणदाताओं की प्रशंसा होती है, कहीं अनाधिकारिक नक्शे बांटे जाते हैं और कहीं देश-विदेश की संपादित हिंसक तसवीरों के जरिये असंतोष भड़काया जाता है। प्रशासन को मुस्तैद होने की ज़रूरत है, सोशल मीडिया पर भी और सड़क पर भी। लेकिन पुलिस की साइबरसेल या तो अक्षम हैं, या शायद हैं ही नहीं। एक आम नागरिक अगर ध्यान आकृष्ट करना भी चाहे तो उसे पता ही नहीं कि अव्वल तो यह काम किया कैसे जाये और दूसरे, यदि पुलिस को बता भी दिया जाये तो क्या सचमुच कोई कार्यवाही होगी भी या नहीं।
आईएऐस, आईपीएस, एवम अन्य अनेक प्रकार के सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, और उनके साथ अनगिनत सांसद, विधायक, पार्षद, आदि - कुल मिलाकर जितना लंबा-चौड़ा सरकारी तामझाम भारत में मौजूद है उतना शायद ही ब्रह्मांड में कहीं और मौजूद हो लेकिन एक चीज़ जो अनिवार्यतः होनी चाहिए, सिरे से नापैद है। वह लापता तत्व है प्रशासन। संसार में जितने भी अग्रणी विकसित राष्ट्र हैं, उन सब में एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था उपस्थित है। विकसित देशों में प्रशासन और विधि व्यवस्था सुदृढ़ होते हुए भी वहाँ आमतौर पर सरकारें छोटी और कम खर्चीली हैं। भारत की स्थिति उलट है। एक दिल्ली शहर का ही उदाहरण लें तो सांसदों के अलावा शहर की अपनी विधान सभा है और उसके अलावा कई पालिकाएँ भी अपने पार्षदों के साथ मौजूद हैं। इसके अलावा आईएऐस, आईपीएस, एवम अन्य सरकारी कर्मियों की फौज मौजूद है। लेकिन जब बात प्रशासनिक व्यवस्था की आती है तो देश का सबसे प्रतिष्ठित और महत्वपूर्ण नगर होने के बावजूद भी वह अपने आसपास के पिछड़े देशों के किसी सामान्य पिछड़े शहर जैसा ही है जहाँ एक बड़ी जनसंख्या पीने के पानी जैसी मूलभूत पर मामूली सुविधा से भी वंचित है। बिजली-पानी की आपूर्ति हो, सड़कों के निर्माण और रखरखाव की बात, कूड़े का निस्तारण हो या नदी-नालों की सफाई, हम आज तक एक नगर, देश की राजधानी को भी रहने लायक नहीं बना सके, बाकी भागों की तो बात ही जाने दीजिये।
विकसित देशों में समस्याओं के अध्ययन और निराकरण में स्थानीय जनता की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। साथ ही साथ वहाँ जनता शिक्षित भी होती है (उदाहरणार्थ, अमेरिका में 12वीं कक्षा तक शिक्षा निशुल्क और अनिवार्य है) और अपना हित, राष्ट्रीय हित और मानवता का हित समझने और सुरक्षित रखने की समझ भी रखती है। दिल्ली के लिए अनेक विशेषज्ञों, कमेटियों, विभागों, कर्मियों, और सुझावों के होते हुए भी पेयजल, शिक्षा और सुरक्षा जैसी मूलभूत समस्याओं तक का निराकरण न कर पाना कहीं न कहीं इस बात का सबूत है कि हमारे देश में जिन कंधों पर ज़िम्मेदारी छोड़ी गई है वे अपने काम के लिए फिट नहीं हैं। तो क्यों न सक्षम लोगों को ज़िम्मेदारी के पदों पर लाने का प्रयास किया जाये?
* भारतीय जनता भी जिम्मेदार प्रशासन की हकदार है - हर बस्ती, गली, गाँव में *बदायूँ के एक कस्बे में दो नाबालिग बहनों के अपहरण के बाद उनके परिजन अपराधियों की पूरी जानकारी लेकर पुलिस चौकी में फरियाद ही कराते रह जाते हैं और पुलिस वहाँ से हिलने में इतना समय लेती है कि अपराधी दोनों की निर्मम हत्या के बाद उनके शवों को घसीटते हुए ले जाकर एक विशाल पेड़ पर टाँग कर चले जाते हैं। इंसानियत को शर्मसार करने वाली यह घटना अपराधियों के बढ़ते हौसलों का प्रतीक तो है ही, इसके बाद राज्य प्रशासन और सरकार के लगभग हर प्रतिनिधि का क्षमा मांगने के बजाय लगातार यह स्पष्टीकरण देते रहना कि ऐसी घटनाओं के बावजूद उनकी सरकार औरों से बेहतर है, यही दर्शाता है कि हम इंसानियत और इन्सानों द्वारा शासित नहीं हैं। आश्चर्य नहीं कि इस घटना के चर्चा में आने के बाद ऐसी ही अनेक घटनाएँ एकदम से सामने आ गईं।
जम्मू और काश्मीर में मुजाहिदीन द्वारा किए जा रहे अमानवीय कृत्य हों या छत्तीसगढ़ में माओवादियों के कंगारू कोर्ट के नाम पर जघन्य हत्यायेँ और घात लगाकर सड़कें और स्कूल नष्ट करना, हर जगह हम जन-जीवन की असुरक्षा और प्रशासन की अकुशलता ही देखते हैं। अंतर बस इतना ही है कि उत्तर प्रदेश में यह अपराध उतने संगठित और विस्तारित नहीं हैं जितने आतंकवाद प्रभावित क्षेत्रों में।
इसी प्रकार देश में कहीं भी, कभी भी द्वेष से भरे असंतुष्ट समुदाय एक दूसरे के खून के प्यासे बन जाते हैं। मुजफ्फरनगर हो या पुणे, हालिया दंगों ने फिर यही सिद्ध किया है कि देश के अधिकांश भाग में सरकारें भले ही बड़ी हों, लेकिन प्रशासन लापता है। खासकर पुणे के दंगों में जिस प्रकार इन्टरनेट पर, फेसबुक,वाट्सऐप, यूट्यूब और ब्लॉग्स आदि पर खुलेआम फैलाई गई नफ़रत की बात सामने आई है, उससे यही लगता है कि सोशल मीडिया के खतरों के बारे में हमारा प्रशासन कान में तेल डाले बैठा है। कहीं विचारधारा के नाम पर आतंकवादियों और उनके सफेदपोश संरक्षणदाताओं की प्रशंसा होती है, कहीं अनाधिकारिक नक्शे बांटे जाते हैं और कहीं देश-विदेश की संपादित हिंसक तसवीरों के जरिये असंतोष भड़काया जाता है। प्रशासन को मुस्तैद होने की ज़रूरत है, सोशल मीडिया पर भी और सड़क पर भी। लेकिन पुलिस की साइबरसेल या तो अक्षम हैं, या शायद हैं ही नहीं। एक आम नागरिक अगर ध्यान आकृष्ट करना भी चाहे तो उसे पता ही नहीं कि अव्वल तो यह काम किया कैसे जाये और दूसरे, यदि पुलिस को बता भी दिया जाये तो क्या सचमुच कोई कार्यवाही होगी भी या नहीं।
कुछ सुझाव
- एक केंद्रीय पुलिस साइबर सेल या केंद्रीय साइबर पुलिस जैसी संस्था बने जो इन्टरनेट की निगरानी करे और अपराधियों के खिलाफ पुख्ता सबूत इकट्ठे कर त्वरित कार्यवाही करे।
- आवश्यक हो तो इस कार्य के लिए त्वरित कोर्ट भी बनाया जाये
- ऐसे अपराधों की शिकायत कहाँ और कैसे की जाये, इसकी समुचित जानकारी जनता को मीडिया, डाकघरों के बुलेटिन बोर्ड, जन-परिवहन पर विज्ञापन आदि द्वारा उपलब्ध कराई जाये।
- केंद्रीय साइबर पुलिस के पोर्टल पर जनता को शिक्षित किया जाये कि कौन से कृत्य अपराध की श्रेणी में आते हैं, ताकि भावुक जन अंजाने में अपराध के सहयोगी न बनें।
- अफवाहें फैलने के अवसर बनाने से पहले ही विवादित विषयों पर तथ्यात्मक आधिकारिक जानकारी प्रकाशित की जाये।
- धार्मिक सेनाओं के निर्माण, पंजीकरण, सदस्यता अभियान, वेबसाइट्स आदि के बारे में नियम तय किए जाएँ और इसकी जानकारी सार्वजनिक की जाये।
- केंद्रीय साइबर पुलिस के पोर्टल पर अपराधियों के विरुद्ध हुई सफल/असफल कार्यवाहियों की सांख्यिकी उपलब्ध कराई जाये ताकि इस शक्ति के दुरुपयोग की संभावना न्यूनतम रहे।
- पुलिस प्रशासन को जन-सामान्य की रक्षा की ज़िम्मेदारी बार-बार याद दिलाई जाये। यह उनके प्रशिक्षण का अनिवार्य अंग हो। साथ ही उनकी तैयारी ऐसी भी हो कि वे अपराधियों से न केवल जूझ सकें बल्कि सदा विजयी हों।